Monika garg

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लेखनी कहानी -03-Jul-2023# तुम्हें आना ही था (भाग:-15)#कहानीकार प्रतियोगिता के लिए

गतांक से आगे:-


जब चंद्रिका ऐसे दीवानों की तरह देवदत्त को देखें जा रही थी तभी कनकबाई ने आवाज दी,

"बिटिया कहां खो गई हो?"


मां की आवाज सुनकर चंद्रिका होश में आई और झेंपते हुए नजरें जमीन में गडा दी।


देवदत्त था ही इतना सजीला जवान , कद-काठी मजबूत थी ।गठीला बदन , लम्बा ,  रोबीला चेहरा , गौरवर्णी एक औरत को एक आदमी में जो जो गुण चाहिए वो सब थे देवदत्त में बस हुनर की परख और करनी थी जिसके लिए राजा वीरभान ने उसे चंद्रिका की मूर्ति बनाने के लिए बोला था। चंद्रिका वैसे ही खड़ी हो गई जैसे देवदत्त ने उसे खड़े होने को बोला था ।

     छैनी हथौड़े की खट-खट शुरू हो गई और कुछ ही घंटों में चंद्रिका की हूबहू मूर्ति बना कर राजा वीरभान के समक्ष रख दी देवदत्त ने ।सारा दरबार वाह वाह कर उठा।उपर बारी में बैठी राजकुमारी कजरी भी ये सब देख रही थी ।उसका दिल भी देवदत्त पर आ गया था और वह भी टकटकी लगाए उसे ही देखे जा रही थी लेकिन उसकी टकटकी में और चंद्रिका की टकटकी लगाकर देखने में फर्क था ।कजरी का एकटक देखना वासना से भरा हुआ था जबकि चंद्रिका का देखना पवित्र प्रेम की परिकल्पना थी।


कुछ ऐसा ही हाल देवदत्त का भी था ।उसने अपने राज्य में बहुत चर्चा सुनी थी चंद्रिका की ।जो कोई भी कुंदनपुर के दरबार से होकर जाता था वो यही कहता था कि नृत्य देखना हो , रुप की छटा देखनी हो तो कुंदनपुर की राज नर्तकी को देखो । क्या भाव भंगिमा बनाती है कि पूछों मत । व्यक्ति एकटक देखता ही रह जाता है । वह नर्तकी ऐसी ऐसी मुद्राएं बनाती है नृत्य करते हुए कि जीती जागती मूरत लगती है । बस यही देखने देवदत्त यहां दरबार में आया था और आते ही चंद्रिका की नजरों से घायल हो गया ।

उधर चंद्रिका भी अपनी सुध-बुध गंवा चुकी थी और इधर देवदत्त भी ।

राजा वीरभान ने देवदत्त की कला को देखकर उसे राज्य का राज शिल्पी घोषित कर दिया ।अब वह तरह तरह की मूर्तियां बनाने लगा जो महलों के निर्माण में , मंदिरों में और बहुत से उद्यानों में लगती थी ।उसे महल में एक कक्ष दे दिया गया ताकि उसे कोई असुविधा न हो।

राजकुमारी कजरी हमेशा देवदत्त के आसपास बनी रहती थी वह हमेशा उसका ध्यान आकर्षित करने में लगी रहती थी कभी उससे चुहलबाज़ी करती कभी उसकी छैनी हथौड़ी छिपा देती ।बेचारा देवदत्त राजकुमारी होने के नाते कजरी से कुछ कह भी नहीं पाता था पर मन ही मन वह उसे आफत लगती थी m उसने परोक्ष रूप में उसका नाम आफत ही रख दिया था।

एक व्यक्ति और था दरबार में जो चंद्रिका को बहुत दिनों से मन ही मन चाहता था लेकिन कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था ।वह था सेनापति का लड़का सुमंत्र । सुमंत्र और चंद्रिका हम उम्र ही थे ।जब वो राजकुमारी कजरी के साथ खेलने महल में आया करती थी तो अक्सर सुमंत्र उसे छुप छुप कर देखता था।उसे  वो हमेशा ललचाई नज़रों से ही देखता ।जब वो यौवन की दहलीज पर कदम रखने वाली थी तब एक दिन उसने राज नर्तकी चंद्रिका का रास्ता रोक लिया जब वो महल से निकल कर अपनी लाल हवेली जा रही थी । चंद्रिका ने उसे डांटा लगाते हुए कहा,

"तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो तुम  इस तरह से मेरा रास्ता रोको। अगर मैंने राजा जी को बता दिया तो तुम्हारी वो गत बनाएंगे कि तुम याद रखोगे।"


उस दिन तो सुमंत्र ने चंद्रिका को छोड़ दिया। लेकिन एक धुन सी सवार हो गयी थी सुमंत्र पर कि चंद्रिका को पाकर ही दम लेना है ।वो बहुत बार अपने पिता के आगे भी इस बात को कह चुका था कि वो चंद्रिका को अपनी पत्नी बना कर ही रहेगा। सेनापति हमेशा उसे कहते ,

"बेटा तू क्यों चिंता करता है देखना एक दिन ये राज्य ही तुम्हारा होगा फिर एक क्या सौ चंद्रिका तुम पर कुर्बान होगी।"

लेकिन सुमंत्र ने चंद्रिका का पीछा नहीं छोड़ा।उस दिन दरबार में भी वो था जब चंद्रिका पागलों की तरह एकटक देवदत्त को निहार रही थी।उसने देखा लिया था कि चंद्रिका देवदत्त के प्रेम पाश में बंधा चुकी है  उसे भी देवदत्त से जलन हो रही थी।



कहने को दोनों बहन भाई ही थे राजकुमारी कजरी और सुमंत्र । क्योंकि दोनों के जैविक पिता तो एक ही थे और दोनों ही उस प्रेम पंछियों से जलन रखते थे ।कजरी देवदत्त को अपना बनाना चाहती थी तो सुमंत्र चंद्रिका को।

धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा । दोनों का प्रेम परवान चढ़ने लगा । चंद्रिका का एक नियत समय होता था महल में आने का क्योंकि जब दरबार लगता था तो वो बहारी मेहमानों का मनोरंजन करने के लिए महल में आती थी ।जब वो महल में अपनी पालकी में आती थी तो दरवाजे पर हमेशा देवदत्त को खड़े हुए पाती थी । दोनों की नजरें टकराती प्यार का इजहार होता और नजरें झुक जाती थी । देवदत्त जी भर कर अपनी चंद्रिका को नयनों में समा लेता था और  दरबार में उसका नृत्य देखकर ही अपने कक्ष में लौटता था उसके बाद जो सृजन होता था देवदत्त के हाथों से उसमें सारे चंद्रिका के प्रतिरूप ही होते थे।चाहे वो कमल पर बैठी लक्ष्मी हो या शेर पर सवार दुर्गा या सुराही लिए खड़ी कोई पनिहारी हो उसमें मुद्राएं तो अलग होती थी लेकिन चेहरा सिर्फ और सिर्फ चंद्रिका का होता था।जैसे उसके चेहरे के सिवाय उसे कुछ सूझता ही ना हो।



तभी शास्त्री जी को एकदम से खांसी आ गयी और उनका ध्यान भंग हो गया ।राज बड़ी ही एकाग्रता से ये सब सुन रहा था उसको ऐसे लग रहा था जैसे शास्त्री जी उसी के जीवन की बातें बता रहे हैं। मिस्टर भूषण प्रसाद भी बड़े ही ध्यान से ये सब सुन रहे थे उन्हें तो ऐसे लग रहा था जैसे कोई चलचित्र चल रहा है और वो उसमे को से गये हो।


तभी नयना भी एक बार फिर से चाय ले आई और सब का मूड एक बार फिर फ्रेश हो गया । शास्त्री जी ने मिस्टर प्रसाद को बताया कि जो भी मैं आपको बता रहा हूं वो इस किताब में तो आधा अधूरा ही लिखा है लेकिन जो इसके साथ एनर्जी लगी है वो ही मुझे सभी बातें बता रही हैं।बस मैं तो जरिया मात्र हूं।



कहानी अभी जारी है…………


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2 Comments

KALPANA SINHA

12-Aug-2023 07:18 AM

Nice part

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Gunjan Kamal

06-Aug-2023 06:07 AM

बेहतरीन भाग

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